Jaunpur news एक बेचैन पीढ़ी: स्मार्ट स्क्रीन के पीछे खोती आत्मादिशा देने की जिम्मेदारी हमारी

एक बेचैन पीढ़ी: स्मार्ट स्क्रीन के पीछे खोती आत्मा
दिशा देने की जिम्मेदारी हमारी
आज की पीढ़ी अजीब विरोधाभास में जी रही है—स्मार्ट, तेज़, सूचनाओं से भरपूर, लेकिन दिशा-विहीन। इनके पास हाई-स्पीड इंटरनेट, अनगिनत विकल्प और तत्काल प्रतिक्रिया देने वाले ऐप्स हैं, मगर जीवन का स्पष्ट उद्देश्य नहीं। मानो गति है, पर दिशा नहीं।
ये पूरी रात मोबाइल स्क्रीन पर स्क्रॉल करते हैं और सुबह अलार्म नहीं, बल्कि नोटिफिकेशन से जागते हैं। सूरज की किरणें इन्हें चुभती हैं, बारिश की बूंदें ‘गंदी’ कर देती हैं। धूप, हवा और कीचड़ से दूरी, और आधा किलोमीटर पैदल चलना भारी—लेकिन आठ घंटे स्क्रीन देखना आसान।
किताबों से रिश्ता लगभग टूट चुका है। साहित्य, इतिहास, संस्कृति अब बस परीक्षा के सवाल या ‘बोरिंग कंटेंट’ हैं। प्रेमचंद, मंटो, टैगोर, नज़रुल या रूमी—इनके नाम अब सिर्फ GK क्विज़ में सुनाई देते हैं। किताबों की जगह रील्स, अध्याय की जगह छोटे क्लिप्स ने ले ली है।
त्वरित सुख इनकी आदत बन चुका है। 10 सेकंड में मनोरंजन चाहिए, नहीं तो ‘नेक्स्ट’। धैर्य और गहराई डिजिटल शब्दकोश से गायब हो चुके हैं। संवेदनाएं धीरे-धीरे नोटिफिकेशन की बीप में दब रही हैं।
शरीर से ज्यादा स्क्रीन की एक्सरसाइज़
अब ताकत बस इतनी है कि उंगलियां मोबाइल स्क्रीन पर आसानी से चलें। पेड़ पर चढ़ना, नदी में तैरना, पहाड़ चढ़ना—ये रोमांच अब सिर्फ नेचर डॉक्यूमेंट्री या गेमिंग ऐप्स में मिलते हैं। असली जीवन वर्चुअल बन गया है।
सबसे बड़ी विडंबना—इन्हें यह भी नहीं पता कि ये क्या नहीं जानते। आत्मचिंतन का आईना इनके पास नहीं। कोई मिशन, मूल्य या दीर्घकालिक सपना नहीं—बस एक अनंत फीड, जिसमें आज के क्लिक ही कल की पहचान बनते हैं।
लेकिन उम्मीद बाकी है…
हर पीढ़ी अपनी चुनौतियों के साथ आती है। इस पीढ़ी के पास सूचना का महासागर है, लेकिन तैरना सिखाने वाला कोई नहीं। इन्हें आलोचना से ज्यादा दिशा, और उपदेश से ज्यादा साथ चाहिए।
संभावनाएं अब भी बाकी हैं। जरूरत बस इतनी है कि हम इन्हें फिर से किताबों, विचारों और असली अनुभवों के पास लाएं। दिशा देने की जिम्मेदारी किसी और की नहीं—हमारी है।